Rooh Afza History: कैसे एक यूनानी दवा बन गई पूरी दुनिया का पसंदीदा शरबत?

Rooh Afza History in Hindi: हाल ही में योगगुरु बाबा रामदेव के बयान से एक बार फिर चर्चा में आए रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) ने न सिर्फ भारत में बल्कि पाकिस्तान और बांग्लादेश तक अपनी खास पहचान बनाई है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि रूह अफ़ज़ा की शुरुआत एक यूनानी दवा के रूप में हुई थी?
आज जब ये शरबत सियासत और बहस का हिस्सा बन चुका है, तो आइए जानें रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) का इतिहास, इसके जनक हकीम अब्दुल मजीद, और इसे पहचान दिलाने वाले हकीम अब्दुल हमीद की प्रेरणादायक कहानी।

1907 में बनी एक यूनानी दवा, जो बन गई हर घर का शरबत: 1906 में दिल्ली के लाल कुआं इलाके में हकीम हफीज़ अब्दुल मजीद ने ‘हमदर्द’ नाम से एक यूनानी दवाखाना शुरू किया। गर्मी में डिहाइड्रेशन और थकावट से परेशान मरीजों के लिए उन्होंने एक खास नुस्खा तैयार किया—जिसमें फल, गुलाब, केवड़ा, खसखस और कई औषधीय जड़ी-बूटियाँ थीं।
इस गाढ़े लाल सिरप का नाम रखा गया ‘रूह अफ़ज़ा’ (Rooh Afza)—जिसका अर्थ होता है ‘आत्मा को ताजगी देने वाला’। शुरुआत में ये एक औषधि थी, लेकिन धीरे-धीरे लोगों के स्वाद और जरूरत का हिस्सा बन गया।

रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) को ऊंचाइयों पर पहुंचाने वाले हकीम अब्दुल हमीद
1922 में हकीम अब्दुल मजीद के निधन के बाद उनके बेटे हकीम अब्दुल हमीद ने महज 14 साल की उम्र में हमदर्द की कमान संभाली। मां राबिया बेगम और बाद में छोटे भाई मोहम्मद सईद की मदद से उन्होंने कंपनी को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
1910 में बंबई में रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) की पहली बोतल आई बाजार में
रूह अफ़ज़ा की पहली मार्केटिंग बोतल 1910 में मुंबई में डिजाइन हुई। यही रंग-बिरंगा लेबल आज भी लोगों की यादों का हिस्सा बना हुआ है।

देश बंटा, परिवार बंटा—but Rooh Afza ने सीमाएं पार कीं
1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय परिवार भी बंटा—हकीम अब्दुल हमीद भारत में रहे और मोहम्मद सईद पाकिस्तान चले गए। लेकिन रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) का सफर नहीं रुका।
भारत में हकीम अब्दुल हमीद ने इसे फैलाया, पाकिस्तान में मोहम्मद सईद ने इसकी शुरुआत की, 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद वहां भी Rooh Afza का उत्पादन शुरू हुआ, आज ये शरबत 40 से ज्यादा देशों में उपलब्ध है।
दूध, लस्सी, फालूदा या पानी—हर स्वाद में घुलता है रूह अफ़ज़ा: रूह अफ़ज़ा (Rooh Afza) को सिर्फ पानी में मिलाकर ही नहीं, बल्कि दूध, लस्सी, कुल्फी, फालूदा और मिठाइयों में भी इस्तेमाल किया जाता है। इसकी मिठास और ठंडक आज भी गर्मियों में हर घर की पहली पसंद है।

सिर्फ शरबत नहीं, शिक्षा और समाज सेवा की मिसाल बने हकीम अब्दुल हमीद
हमदर्द को एक ग्लोबल ब्रांड बनाने वाले हकीम अब्दुल हमीद ने सिर्फ कारोबार नहीं किया, बल्कि समाज के लिए भी गहरी छाप छोड़ी। उन्होंने:
- हमदर्द एजुकेशन सोसाइटी की शुरुआत की
- राबिया गर्ल्स पब्लिक स्कूल की स्थापना की
- हमदर्द चैरिटेबल ट्रस्ट और हमदर्द नेशनल फाउंडेशन शुरू की
- जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी और फार्मेसी कॉलेज की नींव रखी
- उन्हें पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे राष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ा गया।
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“मैं अकेला ही चला था…” – और बन गया एक कारवां
रूह अफ़ज़ा सिर्फ एक शरबत नहीं, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की साझी विरासत, गर्मियों की मिठास और एक यूनानी परंपरा की आधुनिक पहचान है। जैसा कि एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा था:
“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग मिलते गए और कारवां बन गया।”