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भारत में विटामिन डी की कमी बनी बड़ी स्वास्थ्य चुनौती – हर पांचवां व्यक्ति इसकी चपेट में

भारत में विटामिन डी (Vitamin D) की कमी एक गंभीर लेकिन अक्सर अनदेखी की जाने वाली स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है। हाल ही में ICRIER और ANVKA फाउंडेशन द्वारा किए गए अध्ययन में यह सामने आया कि हर पांचवां भारतीय इस कमी से जूझ रहा है। यह समस्या देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग स्तर की है, लेकिन पूर्वी भारत में स्थिति सबसे ज्यादा खराब है, जहां लगभग 39% लोग इस कमी से पीड़ित पाए गए।

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इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने और समाधान तलाशने के लिए नई दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें दुनिया भर के 300 से ज़्यादा विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया। इस कार्यक्रम में डॉक्टर, नीति निर्माता, पोषण विशेषज्ञ, उद्योग प्रतिनिधि और शिक्षाविद शामिल हुए।

किसे है ज़्यादा खतरा?

अध्ययन में पाया गया कि बच्चे, किशोर, गर्भवती महिलाएं और बुज़ुर्ग इस कमी से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। महिलाओं में विटामिन डी (Vitamin D) की कमी पुरुषों की तुलना में अधिक देखी गई। इसके अलावा, शहरी इलाकों में यह समस्या ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक गंभीर है।

सूरज की रोशनी के बावजूद क्यों हो रही है कमी?

भारत एक ऐसा देश है जहाँ सूरज की रोशनी की कोई कमी नहीं है। फिर भी लोग विटामिन डी (Vitamin D) की कमी से परेशान हैं। इसके पीछे कई वजहें हैं:

शहरी जीवनशैली: ज़्यादातर लोग अब घर के अंदर रहते हैं, ऑफिस में घंटों स्क्रीन के सामने रहते हैं, जिससे सूरज की रोशनी से दूरी हो गई है।

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सेहत पर असर

विटामिन डी की कमी से सिर्फ हड्डियाँ ही नहीं, पूरा शरीर प्रभावित होता है। इससे बच्चों में रिकेट्स और बड़ों में हड्डियों की कमज़ोरी (ऑस्टियोमलेशिया) जैसी समस्याएँ होती हैं। इसके साथ ही मांसपेशियों की कमज़ोरी, थकान, मूड में उतार-चढ़ाव और अवसाद भी हो सकते हैं। यह कमी हृदय रोग, मधुमेह और कुछ प्रकार के कैंसर के खतरे को भी बढ़ा सकती है।

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डॉ. आशीष चौधरी, मैनेजिंग डायरेक्टर, आकाश हेल्थकेयर और स्टडी के को ऑथर ने कहा: “विटामिन डी (Vitamin D) की कमी एक मूक महामारी है। यह सिर्फ हड्डियों की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली यानी इम्यून सिस्टम को प्रभावित करती है और गंभीर बीमारियों का कारण बन सकती है। इस पर ध्यान देना ज़रूरी है क्योंकि इसका असर सिर्फ व्यक्तिगत स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि पूरे देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और आर्थिक स्थिति पर भी पड़ता है।”

क्या किया जा सकता है?

विशेषज्ञों का मानना है कि इस चुनौती से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की रणनीति की ज़रूरत है। इसमें शामिल होना चाहिए:
-दूध, तेल और अनाज जैसे रोज़मर्रा के खाद्य पदार्थों में विटामिन डी का फोर्टिफिकेशन (सुदृढ़ीकरण)
-जोखिम वाले समूहों को विटामिन डी सप्लीमेंट निःशुल्क या रियायती दर पर उपलब्ध कराना
-बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान, खासतौर पर स्कूलों, कार्यस्थलों और स्वास्थ्य केंद्रों के ज़रिए
-सस्ते और सरल जांच विकल्पों की उपलब्धता
-अलग-अलग मंत्रालयों और संगठनों के बीच समन्वय
-2047 के लक्ष्य की ओर एक मजबूत कदम

भारत में विटामिन डी की कमी: कारण, समस्याएँ और समाधान

विटामिन डी की कमी क्यों बढ़ रही है?
जीवनशैली और पर्यावरण:
आजकल ज़्यादातर लोग घर के अंदर रहते हैं – चाहे वो ऑफिस का काम हो या ऑनलाइन क्लास। शहरों में प्रदूषण इतना ज़्यादा है कि सूरज की किरणें सही तरीके से नहीं पहुँच पातीं, जिससे शरीर में विटामिन डी (Vitamin D) बनना मुश्किल हो जाता है।

खानपान और महंगाई:
मछली, अंडे, और फोर्टिफाइड दूध जैसी चीज़ें विटामिन डी से भरपूर होती हैं, लेकिन ये महंगी होने की वजह से हर कोई नहीं खरीद सकता। साथ ही, कुछ लोग दूध नहीं पी सकते या पारंपरिक भोजन ही खाते हैं जिसमें विटामिन डी कम होता है।

त्वचा का रंग और सामाजिक प्रथाएँ:
जिन लोगों की त्वचा गहरी होती है, उन्हें धूप में ज़्यादा समय बिताना पड़ता है ताकि शरीर विटामिन डी बना सके। लेकिन बहुत से लोग सांस्कृतिक कारणों से धूप से बचते हैं। वहीं, सप्लीमेंट्स (जैसे गोलियाँ) भी महंगे होते हैं और उन पर 18% जीएसटी लगता है।

मोटापा और पुरानी बीमारियाँ:
मोटापा शरीर में विटामिन डी के काम करने के तरीके को बिगाड़ देता है, जिससे सप्लीमेंट्स भी उतना असर नहीं करते। आजकल चयापचय से जुड़ी बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं, जो स्थिति को और खराब कर देती हैं।

नीतियों की कमी:
देश में अभी तक कोई सख्त और स्पष्ट योजना नहीं है जो विटामिन डी की कमी से निपट सके। बहुत से ज़रूरी खाद्य पदार्थ जैसे चावल और गेहूँ फोर्टिफाइड नहीं हैं। स्कूलों के मिड-डे मील में भी विटामिन डी से भरपूर चीज़ें नहीं दी जातीं।

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क्या मुश्किलें आ रही हैं?

जांच बहुत महंगी है, 1500 रुपये से ज़्यादा लगते हैं, जिससे लोग शुरुआत में ही टेस्ट नहीं कराते।
सप्लीमेंट्स की कीमत ज़्यादा है और वो भी सभी प्रकार (जैसे D2) उपलब्ध नहीं हैं।
फोर्टिफिकेशन (सुदृढ़ीकरण) सिर्फ दूध और तेल तक सीमित है।
लोगों में जागरूकता की कमी है।

अब क्या किया जाना चाहिए?

विशेषज्ञ मानते हैं कि इस समस्या को हल करने के लिए एक बड़ी योजना और सभी क्षेत्रों की साझेदारी ज़रूरी है:

खाद्य फोर्टिफिकेशन को ज़रूरी बनाएं:
सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत दिए जाने वाले चावल, गेहूं जैसे अनाजों में विटामिन D मिलाना ज़रूरी किया जाए।

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विटामिन D2 को भी जरूरी दवाओं की लिस्ट में शामिल करें:
इससे सप्लीमेंट्स की पहुँच और कीमत दोनों बेहतर होंगी।

-बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाएँ:
-लोगों को धूप में समय बिताने, सही खानपान और सप्लीमेंट्स की ज़रूरत के बारे में जानकारी दी जाए।
-स्कूलों और ऑफिसों में खुली जगह में गतिविधियाँ बढ़ाएँ:
जैसे योग या अन्य एक्सरसाइज़ जिससे लोग बाहर रहें और धूप मिले।
-मंत्रालयों में आपसी तालमेल बढ़ाएँ:
-स्वास्थ्य मंत्रालय, खाद्य मंत्रालय, आयुष, वित्त मंत्रालय—all मिलकर एक योजना बनाएं और लागू करें।
राष्ट्रीय स्तर पर योजना बनाएं:
जिसमें साफ लक्ष्य हों, पायलट प्रोजेक्ट से शुरू कर धीरे-धीरे पूरे देश में लागू किया जाए।
‘विटामिन डी मुक्त भारत’ अभियान शुरू करें:
सभी प्लेटफॉर्म – स्कूल, मीडिया, हेल्थ वर्कर्स – का इस्तेमाल कर के लोगों को शिक्षित करें।
पूरक (सप्लीमेंट्स) को फ्री या सस्ते में उपलब्ध कराएँ:
खासकर बच्चों, गर्भवती महिलाओं और बुजुर्गों को।
जांच की लागत घटाएँ और डेटा सिस्टम मजबूत करें
-सस्ती किट बनाएं, नियमित रूप से सभी उम्र के लोगों की जानकारी इकठ्ठा करें ताकि समस्या को समझा और सुलझाया जा सके।

मिलकर काम करने की ज़रूरत

विटामिन डी की कमी से निपटने के लिए अकेले सरकार की कोशिशें काफी नहीं होंगी। इसके लिए सरकार, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं (जैसे WHO, UNICEF), रिसर्च से जुड़े लोग, उद्योग जगत और अन्य विशेषज्ञों को मिलकर एक साथ काम करना होगा। इसके लिए एक ऐसा मंच बनाया जाना चाहिए जहाँ सभी मिलकर नीतियाँ बना सकें, जानकारी साझा कर सकें और साथ मिलकर काम कर सकें।

क्या कहती हैं विशेषज्ञ?

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ICRIER की प्रोफेसर डॉ. अर्पिता मुखर्जी ने कहा, “ये रिपोर्ट हमें एक चेतावनी देती है कि अब और देरी नहीं की जा सकती। अगर हमने मिलकर योजना नहीं बनाई और जरूरी कदम नहीं उठाए, तो विटामिन डी की कमी एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन जाएगी।” उन्होंने ज़ोर दिया कि अगर हम नीतियों में बदलाव लाएं, रिसर्च में निवेश करें और बड़े स्तर पर सुधार करें, तो हम 2030 तक कुपोषण खत्म करने और लोगों के अच्छे स्वास्थ्य के लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं – जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के Sustainable Development Goals (SDGs) में तय किया गया है। अगर हमने समय रहते डेटा और सबूतों के आधार पर काम नहीं किया, तो भारत इन लक्ष्यों से दूर रह जाएगा।

ICRIER के निदेशक और सीईओ दीपक मिश्रा ने कहा, “भारत को आयोडीन युक्त नमक की तरह ही एक मजबूत योजना की ज़रूरत है। मतलब – ज़रूरी चीज़ों में विटामिन डी जोड़ना (फोर्टिफिकेशन), ज़रूरतमंदों को सब्सिडी देना, और बड़े स्तर पर लोगों को जागरूक करना।” उन्होंने साफ़ कहा कि सिर्फ स्वैच्छिक कोशिशों से बात नहीं बनेगी। अगर तुरंत ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो भारत में ऐसी बीमारियाँ बढ़ सकती हैं जिन्हें आसानी से रोका जा सकता है। इससे देश की पहले से ही बोझ से दबी स्वास्थ्य व्यवस्था पर और दबाव पड़ेगा।

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