‘अछूत कन्या’ से लेकर ‘फुले’ (Phule) तक: ब्राह्मण संगठन का गुस्सा क्यों फूटा?

‘फुले’ (Phule) फिल्म विवाद पर विशेष रिपोर्ट | जातिवाद पर बनी फिल्मों का सफर
अनंत महादेवन की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘फुले’ (Phule) रिलीज से पहले ही विवादों में घिर गई है। प्रतीक गांधी और पत्रलेखा अभिनीत यह फिल्म 25 अप्रैल को रिलीज होने जा रही है, लेकिन इसके कुछ संवादों पर ब्राह्मण संगठनों (Brahmin organizations) की आपत्ति के बाद फिल्म को लेकर बहस छिड़ गई है।
जातीय भेद और ब्राह्मणवाद पर बनी फिल्मों का इतिहास : ‘फुले’ (Phule) पहली ऐसी फिल्म नहीं है जिसमें जातीय असमानता को विषय बनाया गया हो। हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में कई फिल्में बनी हैं जो सामाजिक सुधार और जातिवाद के खिलाफ खड़ी रही हैं। लेकिन सवाल उठता है – जब पहले भी ऐसे विषयों पर फिल्में बन चुकी हैं, तो फुले से इतना डर और विरोध क्यों?
फुले: (Phule) समाज सुधारकों की सच्ची कहानी : ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले – भारत के पहले शिक्षाविदों और समाज सुधारकों में शामिल रहे हैं। उन्होंने जातीय भेदभाव, शिक्षा में असमानता और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर काम किया। इस फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह उस दौर के ब्राह्मण संगठन इन पर हमलावर थे।
‘महाराज’ से ‘फुले’ (Phule) तक: जातीय अन्याय पर बनी चर्चित फिल्में
महाराज (2024): धर्म की आड़ में शोषण की कहानी : यशराज फिल्म्स (Raj Films) की महाराज ने धर्म के नाम पर हुए यौन शोषण की सच्ची घटनाओं को उजागर किया। करसनदास की कहानी पर आधारित इस फिल्म को रिलीज से पहले कानूनी अड़चनों का सामना करना पड़ा, लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट किया कि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है।
आर्टिकल 15, (Article 15) जय भीम और कर्णन: नई पीढ़ी की जातिवादी सोच पर चोट : आयुष्मान खुराना की आर्टिकल 15, सूर्या की जय भीम, और धनुष की कर्णन जैसी फिल्मों ने जातीय हिंसा और पुलिस-प्रशासन की भूमिका को बेनकाब किया।
मसान और भीड़: दलित-ब्राह्मण प्रेम कहानी के ज़रिए जातीय बंदिशों पर वार नीरज घायवान की मसान और अनुभव सिन्हा की भीड़ जैसी फिल्मों ने समाज में मौजूद ऊंच-नीच को बहुत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।
क्लासिक फिल्मों में जातीय भेदभाव की प्रस्तुति
अछूत कन्या (1936): हिंदी सिनेमा की पहली जाति-विरोधी फिल्म : हिमांशु राय द्वारा निर्देशित अछूत कन्या में देविका रानी और अशोक कुमार की जोड़ी ने जातिवाद के खिलाफ पहला सिनेमाई कदम उठाया। यह फिल्म आज भी एक आइकोनिक उदाहरण मानी जाती है।
सुजाता (1959) और सद्गति (1981): जाति व्यवस्था पर भावनात्मक प्रहार : बिमल रॉय की सुजाता और सत्यजीत रे की सद्गति जैसी फिल्मों ने जातिगत पीड़ा को मार्मिकता से पेश किया।
श्याम बेनेगल और सामाजिक सिनेमा की नई लहर : श्याम बेनेगल की अंकुर और मंथन जैसी फिल्मों ने दलितों के जीवन को यथार्थवादी ढंग से दिखाया।
धड़क 2, संतोष जैसी फिल्मों का रोका जाना – क्या आज भी समाज तैयार नहीं? : धड़क 2 और ब्रिटिश-भारतीय फिल्म संतोष जैसी सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्मों को भी आज रिलीज में बाधाएं झेलनी पड़ रही हैं, जो यह दर्शाता है कि सिनेमा में जाति की बात करना अब भी आसान नहीं है।