
Dussehra 2025: ओंकारेश्वर का अनोखा दशहरा: यहां नहीं जलाए जाते रावण-कुंभकरण-मेघनाथ के पुतले
Dussehra 2025: ओंकारेश्वर, भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक, धार्मिक आस्था और परंपराओं की अद्वितीय नगरी है। विजयादशमी (दशहरा) पर्व यहां पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, लेकिन इसकी सबसे बड़ी खासियत है कि यहां रावण दहन की परंपरा नहीं है।
क्यों नहीं होता रावण दहन?
किवदंती के अनुसार, ओंकारेश्वर से 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित किसी भी गांव में रावण दहन नहीं किया जाता। मान्यता है कि रावण भगवान शिव का परम भक्त था। उसने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपने सिर तक अर्पित कर दिए थे। इसी कारण यहां रावण का पुतला दहन नहीं होता।
स्थानीय पुजारी और विद्वानों का कहना है कि यह परंपरा हजारों वर्षों से चली आ रही है। ओंकारेश्वर पंडा संघ के अध्यक्ष पंडित नवल किशोर शर्मा के अनुसार—“रावण भगवान भोलेनाथ का परम भक्त था, उसके जैसा भक्त न कभी हुआ न होगा। यही कारण है कि नगरवासी इस परंपरा को पीढ़ियों से निभा रहे हैं।”
एक बार टूटा नियम, फिर हुआ विवाद
समीपवर्ती ग्राम शिवकोठी के युवाओं ने कभी रावण दहन करने की कोशिश की थी, लेकिन इससे गांव में विवाद खड़ा हो गया। लोग आपस में बंट गए और सामाजिक ताना-बाना टूट गया। अंततः बुजुर्गों ने हस्तक्षेप किया और यह तय किया गया कि भविष्य में यहां कभी रावण दहन नहीं होगा।
ओंकारेश्वर में दशहरे की परंपरा
रावण दहन न होते हुए भी यहां दशहरा बेहद भव्य तरीके से मनाया जाता है।
शाम 7 बजे भगवान ओंकारेश्वर की सवारी मंदिर से निकलती है।
खेड़ापति हनुमान मंदिर में शमी वृक्ष (सामी वृक्ष) की पूजा होती है।
इसके बाद सवारी मंदिर लौटती है और नगरवासी राजमहल पहुंचते हैं।
राजमहल में राजा राव पुष्पेंद्रसिंह गद्दी पर विराजमान होते हैं और प्रजा को आशीर्वाद स्वरूप श्रीफल और प्रसाद वितरित करते हैं।
यह मिलन समारोह दशहरे को भाईचारे और सौहार्द का अद्भुत संदेश देने वाला बना देता है।
बुराइयों का दहन, रावण का नहीं
ओंकारेश्वर में विजयादशमी का मुख्य संदेश है—बाहरी रावण को जलाने की जगह भीतर की बुराइयों का दहन करना चाहिए। यहां मान्यता है कि असली जीत तभी है जब इंसान अपने अंदर की बुराइयों को समाप्त करे।